घूम रही धरती की धुरी भी
अंबर की बोझिल आंखें
सूने हुए वृक्ष बिन पंछी
उड़ गए खोले पाँखें !
सांझ की बेला छोड़ना घर को
कुछ कहीं मन कुम्हलाया
उम्मीदों की डोर को थामे
पतंग सा मन उड़ पाया ।
सुबह न होगा गगन देश का
धरती होगी पराई,
संगत का संगीत ही होगा
बांसुरी और शहनाई।
सुनीता राजीव
अंबर की बोझिल आंखें
सूने हुए वृक्ष बिन पंछी
उड़ गए खोले पाँखें !
सांझ की बेला छोड़ना घर को
कुछ कहीं मन कुम्हलाया
उम्मीदों की डोर को थामे
पतंग सा मन उड़ पाया ।
सुबह न होगा गगन देश का
धरती होगी पराई,
संगत का संगीत ही होगा
बांसुरी और शहनाई।
सुनीता राजीव