कर्ण -एक मौन कोलाहल
तमस से गहरे अँधेरे हैं मेरे मन में
कर्ण तो हूँ पर अपने भाग्य का कर्णधार नहीं
जन्मते ही परित्याग जिसे माँ ने हो किया
मैं हूँ वो नाव जिसकी कोई पतवार नहीं।
धरा ऐसी ना हो कि जन्म ,गुण पर
हावी हो
और सुन पाए मेरे धनुष की टंकार नहीं
!
जहाँ पहचान वीरता नहीं कुल
- वंश से हो
ऐसे समाज के नियम मुझे स्वीकार नहीं
!
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