एक बेहोशी के आलम में क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?
दिन पिघलता जाता है जलती हुई बाती की तरह,
रात सरक जाती है तन से किसी चादर की तरह I
दिल में धड़कन है मगर नब्ज़ फिर भी सुन्न है क्यों?
लाखों बाते है ज़हन में फिर जुबां गुम है क्यों ?
लम्हा लम्हा चुरा लेता है बहते जीवन को
जाने किस डोर से बाँधूँ मैं भटकते मन को ?
थाम के तितली सा समय, मैं काश रख पाता
कल को जिया नहीं पर आज को तो जी पाता
साए के जैसे बड़ा कद है मेरे ख़्वाबों का ,
कोई हिसाब नहीं स्याह हुई रातों का ,
ख्वाबों के हुस्न में कोई रात की रानी जैसे
अटका हुआ है इक सवाल कुछ जवाबों का I
हर नया दिन किसी सुरंग सा क्यों लगता है?
किसी शीशे पे पड़ी बूँद सा फिसलता है,
भीगी सड़कों पे नंगे पैर दौड़ता है मन,
ख्वाबों के हुस्न में कोई रात की रानी जैसे
अटका हुआ है इक सवाल कुछ जवाबों का I
हर नया दिन किसी सुरंग सा क्यों लगता है?
किसी शीशे पे पड़ी बूँद सा फिसलता है,
भीगी सड़कों पे नंगे पैर दौड़ता है मन,
माँ के आँचल में छुप जाने को मचलता है I
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