Friday, September 26, 2014



एक प्रश्न 

चेहरे से छीन लिया है नूर 
फिर भी तुम हो बेक़सूर 
जाने चले हैं कैसे दांव ?
कर दिया अपनों से दूर। 

ज़िन्दगी को जीने का 
क्या जोश छीन पाओगे ?
कहो समय ! नीयत  है क्या?
कितने सितम और ढाओगे ?

हुलस ह्रदय में रह गयी  
इक टीस  सुलग के सह गयी ,
बरसों में जो बनायीं थी 
इमारतें वो ढह  गईं। 

इरादे फिर भी आग हैं 
मद्धम  सुरों में राग है 
कहो समय ! नीयत  है क्या?
कितने सितम और ढाओगे ?

आँखों के गिर्द अंधेरों में 
सुनहरे से सवेरे थे 
माथे के उन लकीरों में 
कई अनुभवों के सेहरे थे। 

नज़रें धुन्धलकी  हो चलीं 
क्या दृष्टि छीन पाओगे ?
कहो समय ! नीयत  है क्या?
कितने सितम और ढाओगे ?

चाहे हूँ मैं उतार पर 
मिटने के कगार पर 
नाम मगर लिख दिया है 
हर एक दिल के तार पर। 

कोशिशें असंख्य कर के 
क्या हरा यूँ पाओगे ?
कहो समय ! नीयत  है क्या?
कितने सितम और ढाओगे ?

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