एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी, हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?
दिन पिघलता जाता है जलती हुई बाती की तरह
रात सरक जाती है तन से किसी चादर की तरह
दिल में धड़कन है मगर नब्ज़ फिर भी सुन्न है क्यों?
लाखों बातें हैं ज़हन में ,ज़ुबाँ फिर गुम है क्यों ?
एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी , हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?
लम्हा लम्हा चुरा लेता है दिल की धड़कन को
जाने किस डोर से बाँधूँ मैं भटकते मन को
कतरा कतरा बिखरता जाता है वजूद मेरा
कौन से धागों से सिलूं मैंअपने जीवन को ?
एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी , हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?
थाम के तितली सा उड़ता समय मैं रख पाता
कल को जिया नहीं पर आज को तो जी पाता,
सूना सूना सा जो वीराना भरा है मन में
उस सेहरा में कहीं फूल इक खिला पाता !
एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी, हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?
साये के जैसे बड़ा कद है मेरे ख़्वाबों का
इक बयाबां है कुछ अनकही सी बातों का
ख्वाबों के हुस्न में हो रात की रानी जैसे
खो गया है कहीं सवाल सब जवाबों का !
एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी, हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?
हर नया दिन किसी सुरंग सा क्यों लगता है ?
किसी शीशे पे पड़ी बूँद सा फिसलता है,
भीगी सड़कों पे नंगे पाँव दौड़ता है मन
माँ के आँचल में छुप जाने को मचलता है !
एक बेहोशी के आलम में ,क्यों जिए जाते हैं ?
रुकना चाह कर भी , हम थम नहीं क्यों पाते हैं ?